Saturday, November 13, 2010

मंथन

अमृत कहाँ होता ,
गर मंथन न होता सागर का .
[शायद आज व्यक्ति भागमभाग में , धन और मन के बहाव में अपने मूल उद्देश्यों को भूल गया है ]
इसलिए
हो सके ,तो करें मंथन मन का ,
करें मंथन विचारों का .
हो सके,तो करें मंथन दौड़ते क़दमों का ,
करें मंथन अपने व्यवहारों का ...
[आज हम विदेशी शैली को ज्यादा ही गले लगाते जा रहे हैं ]
इसलिए
हो सके, तो करें मंथन संस्कारों का
करें मंथन होते अपने व्यवहारों का
हो सके ,तो करें मंथन आदान-प्रदानों का
करें मंथन आपसी संबंधों का ...
[शायद हम आगे तभी बढ़ते हैं जब बुराइयों का विचार करते हैं ]
उजालों की सफलता नहीं होती,
गर मंथन न होता अंधियारों का ...
आजादी भी नहीं होती
गर मंथन न होता गुलामी का ....
[आज हम सब जिस इक नाम का गुणगान करते हैं ]
उद्गम न होता इंडस शैली का
गर मंथन न होता
सदियों पुरानी शिक्षा शैली का.
(यह कविता २/१०/१० को इंडस वर्ल्ड स्कूल इंदौर में आयोजित human lab.कार्यक्रम में दिए गए विषय के सन्दर्भ में लिखी गयी.यह एक आशु काव्य है जिसके रचयिता श्री गजेन्द्र पंवार हैं जो विद्यालय में गणित विषय के शिक्षक हैं.)

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