Tuesday, October 26, 2010

A Poem about preserving our environment

मेरी नानी एक कहानी सुनाती
अपने बचपन की यादें संजोती
कहती काश वो दिन फिर आते
और हमें आभास कराते

कि क्या-क्या खो दिया हमने
तरक्की की इस होड़ में भागते

एक गौरैया का घोसला था घर में
मखमली सी घास पर थे दो अंडे
बच्चों से आँख-मिचौली खेल में
उनमें से आखिर निकले थे चूजे

आज कहाँ कोई गौरैया घर में
कहाँ उसके चूजे जन्में
मिट्टी की गौरैया रह गयी
मिट्टी के ही चूजे शेल्फ में

कि क्या-क्या खो दिया हमने
तरक्की की इस होड़ में भागते

नानी बताती उस नदी की कहानी
जो बहती थी बस कुछ ही दूरी पर
हर सुबह सब बच्चे जाते
नहाते और खूब मस्त हो जाते

आज भी वह नदी है बहती
पर गन्दगी के आंसू झरती
सारे शहर के लोग बस उसे
एक गन्दा नाला ही समझते

कि क्या-क्या खो दिया हमने
तरक्की की इस होड़ में भागते

नानी के घर के पास के खुले मैदान में
बसा था बच्चों का पूरा संसार
स्कूल के बाद के चार घंटों में
बटोरते रंग और खुशियाँ अपार

उस मैदान का एक कोना
आज बन गया कचरे का ढेर
बाकी हिस्से पर इमारतें बनीं
जो ढोतीं बच्चों की किताबों का बोझ

कि क्या-क्या खो दिया हमने
तरक्की की इस होड़ में भागते

नानी से और ना कहा जाता
आँखें नम हो जातीं थीं
अपने अतीत के उन पलों में
हमारा भविष्य खोजती थीं

शायद हम बहुत कुछ ना कर सकें
नानी की कहानी को फिर से जीवंत करने में
पर थोड़ी कोशिश तो अवश्य करें
उसकी छवि को संजोने में

- अनिरुद्ध फड़के 

1 comment:

  1. Really a heart touching Poem,"Main ye padke yehi soch rahi thi ki kaash humne bhi ye din dekhe hote kyunki sach mein ye din to humare is duniya mein aane tak to kho gaye the"
    Par haan ye padke wo bhi din yaad aaya jo humare bachpan mein hua karta tha...kaash wo din to laut ke aa jate....Par nahin "kyunki ab to woh din bhi kho chuke hain".............

    ReplyDelete